【कोरबा टाइम्स】। कोरबा शहर से 40 किलोमीटर दूर घने जंगल के बीच स्थित एक ऐसा गांव है, जहां पिछले 100 साल से होली नहीं मनाई जा रही। पुरानी मान्यता यह है ,कि गांव के नियम तोड़कर रंग-गुलाल खेलने वालों पर माता का कहर टूट पड़ता है और वे बीमार हो जाते हैं।
चेहरे व बदन पर दाने निकल आते हैं और पूजा-अनुष्ठान के बाद ही सब कुछ ठीक हो पाता है, इसलिए बुजुर्गों ने रंग-गुलाल खेलने या होलिका दहन पर पाबंदी लगा दी। गांव के बड़ों से लेकर बच्चे तक हर कोई नियम का पालन करता है। इसके स्थान पर माता की पूजा-पाठ करते हैं तथा घर-घर बड़ा-पूड़ी व अन्य व्यंजनों का लुत्फ उठाते हुए खुशियां मनाई जाती है।
यह अनोखी मान्यता ग्राम खरहरी में प्रचलित है, जो करतला ब्लॉक के पंचायत पठियापाली का आश्रित ग्राम है। इस गांव में 100 साल से भी ज्यादा समय से न तो होलिका दहन किया गया, न ही होली के रंग उड़ाए जाते हैं। गांव के लोगों का कहना है कि पूर्वजों के मुताबिक एक बार होली के दिन चौपाल में फाग गाते समय अजीब घटना हुई।
फाग गीत का आनंद ले रहे ग्रामीणों को महसूस हुआ कि कोई डंडे से उनकी पिटाई कर रहा। होली के मौके पर अक्सर शोर-शराबे का माहौल होता है। कुछ ऐसी ही स्थिति उस वक्त होली के दिन गांव में थी। इस पर माता डंगाहिन दाई क्रोधित हो गई और सबक सिखाने के लिए उन्होंने ही डंडे बरसाए, ऐसी बात गांव में फैल गई। रंग खेलने वाले बीमार हो गए, किसी के चेहरे पर दाने निकल आए।
पूजा-आराधना कर माता से मान-मनौव्वल की गई और तब जाकर गांव में आया प्रकोप शांत हुआ। बस तभी से पूर्वजों ने होलिका दहन व होली के त्योहार पर रंग-गुलाल खेलना, फाग गाना, नगाड़े बजाना या किसी भी तरह का शोर-शराबा बंद कर दिया। इस नियम का अनुसरण आज भी किया जा रहा और गांव में कोई होली नहीं मनाता।
गांव में 3 टोले और 125 परिवार
जब आखिरी बार होली मनी थी, तब गांव में माता का प्रकोप आया। गांव के कई लोग बीमार हो गए। रंग-गुलाल खेलने निकले लोगों पर डंडे बरसते थे। जिस-जिस ने भी रंग खेला, उनके चेहरे पर दाने निकल आए। उसके बाद गांव की प्रमुख देवी डंगाहिन दाई की विधिवत पूजा-आराधना की गई और तब जाकर गांव में छाया संकट दूर हो सका। तभी लोगों ने नियम बना लिया कि गांव में कभी रंग-गुलाल नहीं खेलेंगे और न ही होलिका दहन होगा। महंतपारा, सतनामी मोहल्ला व बड़े धमना सहित तीन टोलों के गांव में लगभग 125 परिवार निवास करता है।
पहले धूमधाम से मनाते थे
गांव के बुजुर्ग संतोष कंवर ने बताया कि उन्होंने अपनी 59वर्ष की उम्र में कभी रंग-गुलाल नहीं खेला। उन्होंने कहा कि पूर्वजों के अनुसार वर्षों पहले यहां भी उसी अंदाज से होली खेली जाती थी, जैसा दूसरे गांवों में। होलिका दहन, ढोल-नगाड़े, रंग गुलाल व धूल पंचमी में धूल की होली खेली जाती थी। एक बार होली पर चौपाल में लोग मिल-जुलकर फाग गा रहे थे, तभी डंगाहिन दाई क्रोधित हो गई और फाग गा रहे लोगों पर डंडे बरसने लगे। बस तभी से कभी भी होली का त्योहार नहीं मनाने की प्रतिज्ञा कर क्षमा याचना करते हुए माता को मनाया गया।
पढ़े-लिखे भी मानते हैं नियम
गांव में रहने वाला छत्रपाल ने कॉलेज की पढ़ाई पूरी कर ली है। उसने बताया कि कई साल पहले जो माता का प्रकोप गांव में आया वह उसने तो नहीं देखा है, लेकिन करीब 9-10 साल पहले भी कुछ लोगों ने मना करने के बाद भी गांव में रंग खेला था, जिसके बाद उनके बदन में छाले निकल आए थे। उसने बताया कि गांव में उससे भी ज्यादा पढ़े-लिखे युवा हैं, पर कोई नियम नहीं तोड़ता। यही वजह है कि सभी अपने पूर्वजों के समय से चली आ रही मान्यता को पूरे विश्वास से मानते हैं और पालन भी करते हैं।
होम-हवन किया, तब हुए स्वस्थ
बड़े धमना में ही रहने वाले अजित सिंह ने करीब दस साल पहले की उस घटना को याद करते हुए बताया कि करईनारा के एक शिक्षक अपने अन्य दो शिक्षक साथियों के साथ होली के दिन गांव में आए थे। उन्होंने रंग-गुलाल खेलने से कुछ नहीं होगा, ऐसा कहते हुए गांव के लोगों के मना करने के बाद भी वे एक-दूसरे को रंग लगाने लगे। ऐसा करते ही उन तीनों की तबियत बिगड़ने लगी और चेहरे व शरीर पर दाने निकल आए। वे इतने सीरियस हो गए कि बचना मुश्किल हो गया था। तब माता के सामने होम-हवन किया गया और तब कहीं जाकर वे ठीक हुए।
गांव में शादी करके आई बहुओं ने भी कभी नहीं खेली होली
गांव में शादी करके बहू बनकर आई 28 साल की फूलेश्वरी बाई यादव ने बताया कि अपने गांव में शादी के पहले तक होली में रंग खेलती थी। लेकिन यहां शादी के बाद से ही होली नहीं मनाई। दूसरे जगह ब्याही गई बेटियां वहां होली खेलती हैं। लेकिन यहां आकर उस दिन नहीं खेल सकती हैं। हालांकि, त्योहार वाले दिन घरों में पकवान बनते हैं।
इसी कारण गांव की दुकानों में भी न गुलाल-रंग बिकता है और न ही पिचकारी लटकी हुई दिखाई देती हैं
यहां की फिज़ा है निराली…
पुलिस के रिकार्ड में ग्राम खरहरी को आदर्श ग्राम का दर्जा प्राप्त है। यहां अन्य गांवों की तुलना में अपराध कम होते हैं। गांव में होली नहीं खेलने की परंपरा से यहां के लोग सुकुन महसूस करते हैं। होली के दिन हुड़दंग नहीं होने से गांव का वातावरण पूरी तरह शांतिमय रहता है।
। छत्तीसगढ़ अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति के अध्यक्ष डॉ. दिनेश मिश्रा ने बताया कि ग्रामीण सिर्फ अंधविश्वास के कारण ऐसी परंपरा निभा रहे हैं। लोगों को जागरूक करने के लिए समिति गांव जाएगी और होली के बारे में बताकर जागरूक करेगी।