जब एक थप्पड़ ने बदल दी सरोज पांडेय की जीत राह… मोदी लहर के बाद भी नही जीत पाई अपनी सीट

【कोरबा टाइम्स】साल 2014 में लोकसभा चुनाव में ‘मोदी लहर’ की बदौलत भारतीय जनता पार्टी को प्रचंड बहुमत मिला था। लोकसभा चुनाव में भाजपा ने 30 सालों का रिकॉर्ड तोड़ 283 सीटों पर जीत दर्ज की थी। इस चुनाव में भाजपा गठबंधन ने कुल 336 सीटें जीती थीं। 1984 में कांग्रेस के बाद 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा पहली ऐसी पार्टी बनी थी जिसने अपने दम पर सरकार बनाने लायक सीटें जीती थीं। 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए राजीव गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस को इस कदर प्रचंड बहुमत मिला था। उस वक्त कांग्रेस ने अपने दम पर 404 सीटें जीती थीं। 2014 के चुनाव में राजस्थान और गुजरात में भाजपा ने लोकसभा की पूरी की पूरी सीटें जीती थीं।

543 सीटों पर हुआ था चुनाव, कांग्रेस के खाते में आई थीं सिर्फ 42 सीटें
2014 में 543 सीटों पर लोकसभा चुनाव हुआ था। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को 336 सीटें मिली थी जबकि भाजपा ने 282 सीटें जीती थीं। इस चुनाव में कांग्रेस के खाते में कुल 44 सीटें आई थीं। जबकि कांग्रेस गठबंधन ने कुल 60 सीटें जीती थीं। शिवसेना ने 2014 के लोकसभा चुनाव में 18 सीटें जीती थी जबकि एनसीपी के खाते में 6 सीटें गई थीं।

छत्‍तीसगढ़ में वर्ष 2014 में हुए लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को भारी सफलता मिली थी। पिछले लोकसभा चुनाव में राज्‍य में भाजपा ने 9 सीटों पर जीत हासिल की थी जबकि एक सीट पर कांग्रेस को जीत मिली थी।

लोकसभा चुनाव के बाद नई दिल्ली में प्रदेशों के संगठन मंत्रियों की बैठक में छत्तीसगढ़ की दुर्ग लोकसभा सीट की हार का मुद्दा उठा। बैठक में यह सवाल किया गया कि जब पूरे देश में नरेंद्र मोदी की लहर थी तो ऐसे में दुर्ग लोकसभा प्रत्याशी और भाजपा महिला मोर्चा की राष्ट्रीय अध्यक्ष सरोज पांडे की हार कैसे हो गई? छत्तीसगढ़ की सभी 11 सीट की रिपोर्ट केंद्रीय नेतृत्व को सौंपी गई। प्रदेश से संगठन मंत्री रामप्रताप सिंह ने लोकसभावार रिपोर्ट दी। गौरतलब है कि प्रदेश की 11 में से दस सीट पर भाजपा को जीत मिली है

इस बीच पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी के उस बयान के बाद प्रदेश भाजपा में यह चर्चा शुरू हो गई है कि आखिर वे दो बड़े नेता कौन हैं, जिन्होंने सरोज पांडे को हराने के लिए पैसे की पेशकश की। नई दिल्ली की बैठक में भी यह चर्चा हुई कि क्या आपसी गुटबाजी के कारण हार का सामना करना पड़ा। अगर गुटबाजी के कारण पार्टी को हार का सामना करना पड़ा तो जिम्मेदार नेताओं की खोज का जिम्मा प्रदेश नेतृत्व को सौंपा गया है।

चुनाव प्रचार से लेकर बूथ मैनेजमेंट तक, लगभग सभी हथकंडों में आगे रही सरोज पांडेय दुर्ग से चुनाव हार गईं। कांग्रेस के ताम्रध्वज साहू 13 हजार वोटों से चुनाव जीत गए। ताम्रध्वज की जीत से कहीं बड़ी सरोज पांडेय की हार मानी जा रही है।
दुर्ग लोकसभा के 18, 57,775 वोटर्स में 2 लाख से ज्यादा युवा मतदाता थे। राष्ट्रीय स्तर पर पसंद नरेंद्र मोदी थे। मोदी की लहर थी। केंद्र में कांग्रेस की सरकार के खिलाफ माहौल था। बावजूद इसके ऐसा क्यों हुआ कि पूरे प्रदेश में दुर्ग इकलौती सीट रही जहां भाजपा हार गईं। जबकि संगठन स्तर पर भी इस बात की पड़ताल करें तो सरोज खुद संगठन की बड़ी नेता थीं।

छग में भाजपा का बड़ा चेहरा मानीं जातीं हैं। भाजपा का इलेक्शन मैनेजमेंट भी बेहतरीन था। स्वयं सरोज व उनका भाई राकेश पांडेय इसकी कमान संभाले हुए थे। टीम वर्क, बूथ और टाइम मैनेजमेंट में प्रतिद्वंद्वी कहीं मुकाबले में नहीं थे। सरोज महिला मोर्चा की राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। दो बार दुर्ग की महापौर रहीं। वैशाली नगर की विधायक चुनी गईं। फिर सांसद बनीं। संगठन में दबदबा रहा। पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व में भी पैठ बनाने में सफल रहीं। जीत जातीं तो केंद्र में मंत्री बनना भी तय माना जा रहा था। दूसरी ओर कांग्रेस का पूरा चुनाव अभियान बिखरा-बिखरा रहा। संगठन में तालमेल नजर नहीं आई। पूरे चुनाव प्रचार अभियान के दौरान ऐसा लग रहा था कि बहती धार ((सरोज विरोधी)) के साथ हो लो नैया किनारे लग ही जाएगी। अंतत: हुआ भी वही।

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